मध्य प्रदेश

यहां अब दरख्तों के साये में धूप लगती है…

एनसीएल: नदी नहीं समंदर है, डुबकी लगाईये-दो

 

 

आर.के.श्रीवास्तव
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काल चिन्तन,सिंगरौली। जी बहलाने के लिए गालिब का ख्याल अच्छा हो सकता है पर सत्य तो यह है की जब भी ‘न्याय-यज्ञ’ किया गया है, बलि का बकरा तो गरीब मजलूम ही होता है। सिंगरौली के वनवासियों के साथ भी यही हुआ। जमीनें ले ली गयीं। पेड़ हरियाली खत्म कर दी गयी। बहुत से लोग बेराजगार हो गये। सुप्रसिद्ध कवि दुष्यंत की कविता की दो पंक्तियां यहां सार्थक लगती हैं। ’यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहां से चले और उम्र भर के लिए’ दरख्त रहे ही नहीं तो साये का ख्याल नहीं उठता। धूप सीधी ऊपर आने लगी तो पलायन के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं बचा। जिन पेड़ों के नीचे कभी बाघ और तेन्दुए दंवरी करते थे, वनवासी जिन वृक्षों के नीचे बैठकर महुआ पीते थे। तेंदू फल खाते थे, वे वृक्ष अब नहीं रहे। लिहाजा सिंगरौली छोड़कर हजारों मूलनिवासियों, वनवासियों ने पलायन का रास्ता अख्तियार किया। जब सवाल अस्तित्व का हो तो यही होता है।

एनसीडीसी से एनसीएल बनने के बाद कई बार भूमि अधिग्रहण का दौर चला। कई बार लोग विस्थापित हुये। सरकार और प्रबंधन की मनसा ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालने की रही। लेकिन उन्होने यह देखे की जहमत नहीं उठायी कि जिन वनवासियो, मूलनिवासियों को वे उजाड़ रहे हैं उनका क्या होगा? एनसीएल की खदानें सिंगरौली के बहुत बड़ी भू-भाग पर पसरी हुयी हैं। बिना मास्टर प्लान बनाये, सिंगरौली की जमीन को एनसीएल प्रबंधन द्वारा अधिग्रहित किया गया है। नतीजा यह है कि आज बहुत सी जमीनें बेकार पड़ी हुयी हैं। उसपर एनसीएल का न तो कोई संयंत्र लगा और ना ही भूमि मालिकों के काम आयी। खेती लायक जमीन बंजर हो रही हैं। अलबत्ता यह जरूर हो रहा है कि खाली जमीनों पर बड़े पैमाने पर अतिक्रमण हो चुका है तथा हो रहा है। जिस जमीन का मालिकाना हक देश के राष्ट्रपति का होता है उसे दलालों द्वारा खरीदा और बेंचा जा रहा है। अनाधिकृत मकान बनाये जा रहे हैं। व्यवसायिक प्रतिष्ठान बनाये जा रहे हंै। हाँ तो हम बात कर रहे थे, वनवासियों के विस्थापन और पलायन की। विषयांतर न होते हुये हम अपनी बात पर आ रहे हैं। विस्थापन से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, भुखमरी बढ़ी, पलायन हुये तथा अपराध बढ़े। अपसंस्कृति का विकास हुआ। यह सिक्के का दूसरा पहलु है। जिन भूमिहीनों को नौकरी नहीं मिली, कोई धंधा नहीं मिला। वे संविदाकारों के यहां मजदूरी करने लगे। आज खदानों में हो या खदानों से बाहर जो मजदूर काम कर रहे हैं उन्हें दो सौ से ढाई सौ प्रतिदिन मिल रहे हैं। सरकार ने जो भी न्यूनतम मजदूरी तय की हो उससे न तो संविदाकार को कुछ लेना देना है और ना ही एनसीएल के जिम्मेदार अधिकारियों को कुछ मतलब है। एनसीएल के कार्यालयों में, क्लीनिकों में, नेहरू शताब्दी चिकित्सालय में काम करने वाला मजदूर मात्र दो से ढाई सौ रूपये प्राप्त करता है। खदानों में काम करने वाला मजदूर मात्र तीन सौ से चार सौ रूपये प्राप्त करता है। यह विशंगति, यह शोषण किसकी बिना पर हो रहा है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? जो लोग सिंगरौली छोड़कर भाग गये उन्होने कोई तालाब, कोई नदी, कोई नाला तलाश किया और किसी वृक्ष के नीचे अपनी मड़ई डाली और अपना नैसर्गिक जीवन शुरू कर दिया। लेकिन सिंगरौली में जो लोग रूक गये उनके साथ प्रकृति छिन गयी। कोयले के उत्पादन एवं निष्पादन के चलते सारे नदी नाले डंप कर दिये गये। प्राकृतिक झरने बंद हो गये। पहाड़ तोड़ दिये गये, जंगल नष्ट कर दिये गये। जो सिंगरौली कभी कश्मीर की बेटी कही जाती थी आज वह कंकरीट के जंगलों में तब्दील हो रही है। मुख्यमंत्री शिवराज जी का सपना सिंगापुर तैयार हो रहा है।


विस्थापन और पुनर्वास की फेहरिस्त बहुत लम्बी है, हम उस पुरानी कहानी पर नहीं जाते हैं। अभी हाल में ही जयंत परियोजना के विस्तार के चलते मेढ़ौली गांव का विस्थापन किया जा रहा है। विस्थापन में वनवासियों व मूलनिवासियों की जमीन को, मकान को, कुवेें को, पेड़ों को नापने तथा मूल्यांकन करने में जिम्मेदार अधिकारियों द्वारा धांधली की जा रही है। मूलनिवासी भाग-भाग कर कलेक्ट्रेट की शरण ले रहे हैं लेकिन कोई सुन नहीं रह है। अब बात जनप्रतिनिधि की आती है तो हमने सिंगरौली विधानसभा के विधायक श्री रामलल्लू वैश्य से जानना चाहा की विस्थापन में मौजूदा विशंगति क्या है? उन्होने कहा कि २०१३ में कानून बना था कि विस्थापन में जमीन तथ मकानों पर १२ प्रतिशत का ब्याज दिया जायेगा। एक वर्ष पहले तक के मकान पर ९ प्रतिशत ब्याज दिया जायेगा। इससे ज्यादा समय पहले का मकान है तो १५ प्रतिशत ब्याज दिया जायेगा। एनसीएल प्रबंधन जमीन पर ब्याज दे रहा है लेकिन मकान तथा कुयें पर ब्याज नहीं दे रहा है। सरकार घोषणा करती है कि विस्थापन से पहले पुनर्वास किया जाये। लेकिन मेढ़ौली के विस्थापन में जिम्मेदार प्रबंधन नौकरी के सवाल पर भूमिस्वामियों को लटकाये हुये है। नियम यह है कि दो एकड़ जमीन के धारक को नौकरी दी जानी चाहिए। प्रबंधन का तर्क है कि मेढ़ौली गांव का तीसरी बार विस्थापन हो रहा है। एक ही गांव के लिए तीन-तीन बार नौकरी नहीं दी जायेगी। श्री वैश्य का कहना है कि तो एक ही बार में विस्थापन कर लेते। लड़कों और बच्चों के नाम आ रहे हैं लेकिन नौकरी नहीं दी जा रही है। विधायक का आरोप है कि इस समय एनसीएल प्रबंधन में लूट खसोट वाले आ गये हैं। मेढ़ौली गांव में बसोर, अगरिया, बैगा, खैरवार, पनिका आदिवासियों का लम्बे समय से निवास है। वे सरकारी जमीन पर अपना घर बनाकर रह रहे हैं। एनसीएल प्रबंधन उनके घरों की नापी नहीं कर रहा है। जबकि सरकार कहती है कि मकान जिसका भी बना है उसको मुआवजा दो। लेकिन जीएम रेवेन्यु तथा जीएम जयंत प्रस्ताव नहीं बना रहे हैं। जबकि सीएमडी का कहना है कि प्रस्ताव आये तो बोर्ड में निर्णय किया जायेगा। इसी प्रकार मुहेर और निगाही में भी मूलनिवासियों को मकान के ब्याज का इंतजार है। विधायक का कहना है कि वे लोकसभा में जायेंगे और कोयला मंत्री से बात करेंगे। यदि बात नहीं बनी तो मूलनिवासी आन्दोलन करने के लिए तैयार हैं।

पलायन किसी समस्या का समाधान नहीं है। अपना हक मांगने के लिए अब भोले-भाले वनवासियों को सड़क पर आना होगा। वनवासियों की नयी पीढ़ी तैयार हो गयी है। इन बेरोजगारों को पलायन नहीं धर्मयुद्ध का रास्ता अपनाना चाहिए। मेरा यह कथन फरियादियों के लिए उत्प्रेरणा है। अपने इस प्रेरक के समर्थन में मुझे सुप्रसिद्ध कवि दुष्यंत की एक कविता की दो पंक्तियां फिर याद आ रही हैं ”कौन कहता है कि आसमाँ में सुराख नही होता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों”।

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